हिंदी कक्षा 10 महत्वपूर्ण प्रश्न 2024

 

    जीवन परिचय- 10
                     (लेखक परिचय)
 1 . राम चन्द्र शुक्ल 
              

जीवन-परिचय-हिन्दी के प्रतिभासम्पन्न मूर्धन्य समीक्षक एवं युग-प्रवर्तक

साहित्यकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म सन् 1884 ई० में वस्ती जिले के अगोना नामक ग्राम के एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। इनके पिता चन्द्रबली शुक्ल मिर्जापुर में कानूनगो थे। इनकी माता अत्यन्त विदुषीं और धार्मिक थीं। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अपने पिता के पास जिले की राठ तहसील में हुई और इन्होंने मिशन स्कूल से दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। गणित में कमजोर होने के कारण ये आगे नहीं पढ़ सके। इन्होंने एफ०ए० (इण्टरमीडिएट) की शिक्षा इलाहाबाद से ली थी, किन्तु परीक्षा से पूर्व ही विद्यालय छूट गया। इसके पश्चात् इन्होंने मिर्जापुर के न्यायालय में नौकरी आरम्भ कर दी। यह नौकरी इनके स्वभाव के अनुकूल नहीं थी, अतः ये मिर्जापुर के मिशन स्कूल में चित्रकला के अध्यापक हो गये। अध्यापन का कार्य करते हुए इन्होंने अनेक कहानी, कविता, निबन्ध, नाटक आदि की रचना की। इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर इन्हें 'हिन्दी शब्द-सागर' के सम्पादन कार्य में सहयोग के लिए श्यामसुन्दर दास जी द्वारा काशी नागरी प्रचारिणी सभा में ससम्मान बुलवाया गया। इन्होंने 19 वर्ष तक 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका' का सम्पादन भी किया। कुछ समय पश्चात् इनकी नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक के रूप में हो गयी और श्यामसुन्दर दास जी के अवकाश प्राप्त करने के बाद ये हिन्दी विभाग के अध्यक्ष भी हो गये। स्वाभिमानी और गम्भीर प्रकृति का हिन्दी का यह - दिग्गज साहित्यकार सन् 1941 ई० में स्वर्गवासी हो गया।

- रचनाएँ - शुक्ल जी एक प्रसिद्ध निबन्धकार, निष्पक्ष आलोचक, श्रेष्ठ इतिहासकार और सफल सम्पादक थे। इनकी रचनाओं का विवरण निम्नवत् है-

1. निबन्ध 'चिन्तामणि' (दो भाग) तथा 'बिचारवीथी'।

2. आलोचना (

क) रस-मीमांसा, (ख) त्रिवेणी, (ग) सूरदास।

3. इतिहास- '

हिन्दी साहित्य का इतिहास'।

4. सम्पादन - 'जायसी ग्रन्थावली', 'तुलसी ग्रन्थावली', 'भ्रमरगीत सार', 'हिन्दी शब्द-सागर' और 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका' का कुशल सम्पादन किया।

इसके अतिरिक्त शुक्ल जी ने कहानी (ग्यारह वर्ष का समय), काव्य-रचना = (अभिमन्यु-वध) तथा कुछ अन्य भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद भी किये। जिनमें 'मेगस्थनीज का भारतवर्षीय विवरण', 'आदर्श जीवन', 'कल्याण का आनन्द', 'विश्व प्रबन्ध', 'बुद्धचरित' (काव्य) आदि प्रमुख हैं। -

साहित्य में स्थान - हिन्दी निबन्ध को नया आयाम देकर उसे ठोस धरातल पर

प्रतिष्ठित करने वाले शुक्ल जी हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक, श्रेष्ठ निबन्धकार, निष्पक्ष इतिहासकार, महान् शैलीकार एवं युग-प्रवर्तक साहित्यकार थे। ये हृदय से कवि, मस्तिष्क से आलोचक और जीवन से अध्यापक थे। हिन्दी- साहित्य में इनका मूर्धन्य स्थान है। इनकी विलक्षण प्रतिभा के कारण ही इनके 1. समकालीन हिन्दी गद्य के काल को 'शुक्ल युग' के नाम से सम्बोधित किया जाता है।



2. डॉ राजेन्द्र प्रसाद 

जीवन-परिचय- हिन्दी-साहित्य के महान् कवि, नाटककार, कहानीकार एवं निबन्धकार श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म सन् 1889 ई० में काशी के प्रसिद्ध
सुघनी साहू' परिवार में हुआ था। इनके पिता बाबू देवीप्रसाद काशी के प्रतिष्ठित और धनाढ्य व्यक्ति थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई तथा स्वाध्याय से ही इन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू और फारसी का श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त किया और साथ ही वेद, पुराण, इतिहास, दर्शन आदि का भी गहन अध्ययन किया। माता-पिता तथा बड़े भाई की मृत्यु हो जाने पर इन्होंने व्यवसाय और परिवार का उत्तरदायित्व सँभाला ही था कि युवावस्था के पूर्व ही भाभी और एक के बाद दूसरी पत्नी की मृत्यु से इनके ऊपर विपत्तियों का पहाड़ ही टूट पड़ा। फलतः वैभव के पालने में झूलता इनका परिवार ऋण के बोझ से दब गया। इनको विषम परिस्थितियों से जीवन-भर संघर्ष करना पड़ा, लेकिन इन्होंने हार नहीं मानी और निरन्तर साहित्य-सेवा में लगे रहे। क्रमशः प्रसाद जी का शरीर चिन्ताओं से जर्जर होता गया और अन्ततः ये क्षय रोग से ग्रस्त हो गये। 14 नवम्बर, सन् 1937 ई० को केवल 48 वर्ष की आयु में हिन्दी साहित्याकाश में रिक्तता उत्पन्न करते हुए इन्होंने इस संसार से विदा ली।

कृतियाँ- प्रसाद जी ने काव्य, नाटक, कहानी, उपन्यास और निबन्धों की रचना की। इनकी प्रमुख कृतियों का विवरण निम्नलिखित है-

(1)

नाटक - 'स्कन्दगुप्त', 'अजातशत्रु', 'चन्द्रगुप्त',

'विशाख',

'ध्रुवस्वामिनी', 'कामना,' 'राज्यश्री', 'जनमेजय का नागयज्ञ', 'करुणालय', 'एक घूँट', 'सज्जन', 'कल्याणी-परिणय' आदि इनके प्रसिद्ध नाटक हैं। प्रसाद जी के नाटकों में भारतीय और पाश्चात्य नाट्य-कला का सुन्दर समन्वय. है। इनके नाटकों में राष्ट्र के गौरवमय इतिहास का सजीव वर्णन हुआ है।

(2)

कहानी-संग्रह 'छाया', 'प्रतिध्वनि', 'आकाशदीप' तथा 'इन्द्रजाल' प्रसाद जी की कहानियों के संग्रह हैं। इनकी कहानियों में मानव-मूल्यों

और भावनाओं का काव्यमय चित्रण हुआ है।

3) उपन्यास-कंकाल, तितली और इरावती (अपूर्ण)। प्रसाद जी ने अपने ( इन उपन्यासों में जीवन की वास्तविकता का आदर्शोन्मुख चित्रण किया है।

(4)

निबन्ध-संग्रह- 'काव्यकला तथा अन्य निबन्ध'। इस निबन्ध संग्रह में

प्रसाद जी के गम्भीर चिन्तन तथा साहित्य सम्बन्धी स्वस्थ दृष्टिकोण की

अभिव्यक्ति हुई है।

) काव्य-'कामायनी' (महाकाव्य), 'आँसू', 'झरना', 'लहर' आदि प्रसिद्ध काव्य हैं। 'कामायनी' श्रेष्ठ छायावादी महाकाव्य है।

(5

साहित्य में स्थान - प्रसाद जी छायावादी युग के जनक तथा युग-प्रवर्तक

रचनाकार हैं। बहुमुखी प्रतिभा के कारण इन्होंने मौलिक नाटक, श्रेष्ठ कहानियाँ, उत्कृष्ट निबन्ध और उपन्यास लिखकर हिन्दी साहित्य के कोश की श्रीवृद्धि की है। आधुनिक हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकारों में प्रसाद जी का विशिष्ट स्थान है।

आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के शब्दों में, "भारत के इने-गिने श्रेष्ठ साहित्यकारों में प्रसाद जी का स्थान सदैव ऊँचा रहेगा।" इनके विषय में किसी कवि ने उचित ही कहा है-

सदियों तक साहित्य नहीं यह समझ सकेगा

तुम मानव थे या मानवता के महाकाव्य थे।


3. जयशंकर प्रसाद 
जीवन-परिचय- देशरत्न डॉ० राजेन्द्र प्रसाद का जन्म सन् 1884 ई० में बिहार राज्य के छपरा जिले के जीरादेई नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम महादेव सहाय था। इनका परिवार गाँव के सम्पन्न और प्रतिष्ठित कृषक परिवारों में से था। इन्होंने कलकत्ता (कोलकाता) विश्वविद्यालय से एम०ए०; एल-एल० बी० की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। ये प्रतिभासम्पन्न और मेधावी छात्र थे और परीक्षा में सदैव प्रथम आते थे। कुछ समय तक मुजफ्फरपुर कॉलेज में अध्यापन कार्य करने के पश्चात् ये पटना और कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील भी रहे। इनका झुकाव प्रारम्भ से ही राष्ट्रसेवा की ओर था। सन् 1917 ई० में गांधी जी के आदर्शों

और सिद्धान्तों से प्रभावित होकर इन्होंने चम्पारन के आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया और वकालत छोड़कर पूर्णरूप से राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े। अनेक बार जेल की यातनाएँ भी भोगीं। इन्होंने विदेश जाकर भारत के पक्ष को विश्व के सम्मुख रखा। ये तीन बार अखिल भारतीय कांग्रेस के सभापति तथा भारत के संविधान का निर्माण करने वाली सभा के सभापति चुने गये। राजनीतिक जीवन के अतिरिक्त बंगाल और बिहार में बाढ़ और भूकम्प के समय की गयी इनकी सामाजिक सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। 'सादा जीवन उच्च-विचार' इनके जीवन का पूर्ण आदर्श था। इनकी प्रतिभा, कर्त्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी और निष्पक्षता से प्रभावित होकर इनको भारत गणराज्य का प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया। इस पद को ये सन् 1952 से सन् 1962 ई० तक सुशोभित करते रहे। भारत सरकार ने इनकी महानताओं के सम्मान स्वरूप देश की सर्वोच्च उपाधि 'भारतरत्न' से सन् 1962 ई० में इनको अलंकृत किया। जीवन भर राष्ट्र की निःस्वार्थ सेवा करते हुए ये 28 फरवरी, 1963 ई० को दिवंगत हो

गये।

रचनाएँ - राजेन्द्र बाबू की प्रमुख रचनाओं का विवरण निम्नवत् है- (1) चम्पारन में महात्मा गांधी, (2) बापू के कदमों में, (3) मेरी आत्मकथा, (4) मेरे यूरोप के अनुभव, (5) शिक्षा और संस्कृति, (6) भारतीय शिक्षा, (7) गांधीजी की देन, (8) साहित्य, (9) संस्कृति का अध्ययन, (10) खादी का अर्थशास्त्र आदि इनकी प्रमुख रंचनाएँ हैं।

साहित्य में स्थान - डॉ० राजेन्द्र प्रसाद सुलझे हुए राजनेता होने के साथ-साथ उच्चकोटि के विचारक, साहित्य-साधक और कुशल वक्ता थे। ये 'सादी भाषा और गहन विचारक' के रूप में सदैव स्मरण किये जाएँगे। हिन्दी की आत्मकथा विधा में इनकी पुस्तक 'मेरी आत्मकथा' का उल्लेखनीय स्थान है। ये हिन्दी के अनन्य सेवक और प्रबल प्रचारक थे। राजनेता के रूप में अति-सम्मानित स्थान पर विराजमान होने के साथ-साथ हिन्दी साहित्य में भी इनका अति विशिष्ट स्थान है।

                (कवि परिचय)
1. तुलसीदास 
2. सूरदास 
3. बिहारी 
4. महादेवी वर्मा
5. सुमित्रानंदन पंत 


महत्वपूर्ण गद्यांश 
1.  मित्रता 


2. ममता 
3. भारतीय संस्कृति 
महत्वपूर्ण पद्यांश 
1. पद 
2. धनुष भंग,बन पथ पर 
3. सवैया 


संस्कृत गद्यांश 
1. वाराणसी 

(1) वाराणसी सुविख्याता प्राचीना नगरी। इयं विमलसलिलतरङ्गायाः गङ्गायाः कूले स्थिता। अस्याः घट्टानां वलयाकृतिः प‌ङ्क्तिः धवलायां चन्द्रिकायां बहु- राजते। अगणिताः पर्यटकाः सुदूरेभ्यः देशेभ्यः नित्यम् अत्र आयान्ति, अस्याः घट्टानां च शोभां विलोक्य इमां बहु प्रशंसन्ति ।

(2014, 16, 19, 23,)

सन्दर्भ - प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी' के 'संस्कृत-खण्ड' के 'वाराणसी' पाठ से उधृत है।

[विशेष - इस पाठ के अन्य सभी गद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।।

प्रसंग-इस गद्यांश में वाराणसी की ऐतिहासिकता तथा अवस्थिति के विषय में बताया गया है।

अनुवाद - वाराणसी बहुत प्रसिद्ध प्राचीन नगरी है। यह स्वच्छ जल की तरंगों से युक्त गंगा के किनारे स्थित है। इसके घाटों की घुमावदार पंक्ति श्वेत चाँदनी में बहुत सुन्दर लगती है। असंख्य यात्री भ्रमण करने के लिए दूर देशों से प्रतिदिन यहाँ आते हैं और इसके घाटों की शोभा देखकर इसकी बहुत प्रशंसा करते हैं।

(2) वाराणस्यां प्राचीनकालादेव गेहे गेहे विद्यायाः दिव्यं ज्योतिः द्योतते । अधुनाऽपि अत्र संस्कृतवाग्धारा सततं प्रवहति, जनानां ज्ञानं च वर्द्धयति । अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्‌मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति, निःशुल्कं च विद्यां गृह्णन्ति । अत्र हिन्दूविश्वविद्यालयः, संस्कृतविश्वविद्यालयः, काशीविद्यापीठम् इत्येते त्रयः विश्वविद्यालयाः सन्ति, येषु नवीनानां प्राचीनानां च ज्ञानविज्ञानविषयाणाम् अध्ययनं प्रचलतिः ।

प्रसंग - पूर्ववत् ।

(2016, 20,21,22,23)

अनुवाद-वाराणसी में प्राचीनकाल से ही घर-घर में विद्या की अलौकिक ज्योति प्रकाशित होती रही है। आज भी यहाँ संस्कृत वाणी की धारा निरन्तर प्रवाहित रहती है और लोगों का ज्ञान बढ़ाती है। यहाँ पर अनेक आचार्य, उच्चकोटि के विद्वान् वैदिक साहित्य के अध्ययन और अध्यापन में इस समय भी लगे हुए हैं। केवल भारतवासी ही नहीं, अपितु विदेशी भी संस्कृत भाषा के अध्ययन के लिए यहाँ आते हैं और निःशुल्क विद्या ग्रहण करते हैं। यहाँ पर हिन्दू विश्वविद्यालय, संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ - ये तीन विश्व- विद्यालय हैं, जिनमें नवीन और प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के विषयों का अध्ययन • चलता रहता है।


(3) एषा नगरी भारतीयसंस्कृतेः संस्कृतभाषायाश्च केन्द्रस्थली अस्ति । इत एव संस्कृतवाङ्‌मयस्य संस्कृतेश्च आलोकः सर्वत्र प्रसृतः । मुगलयुवराजः प्रन दाराशिकोहः अत्रागत्य भारतीय-दर्शन-शास्त्राणाम् अध्ययनम् अकरोत् । स तेषां ज्ञानेन तथा प्रभावितः अभवत्, यत् तेन उपनिषदाम् अनुवादः पारसी-भाषायां कारितः। (2014, 16, 18, 20, 22, 23)

प्रसंग-पूर्ववत्।

अनुवाद - यह नगरी भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा की केन्द्रस्थली है। यहीं से संस्कृत साहित्य और संस्कृति का प्रकाश सभी जगह फैला है। मुगल युवराज दाराशिकोह ने यहाँ आकर भारतीय दर्शन-शास्त्रों का अध्ययन किया था। वह उनके ज्ञान से इतना प्रभावित हुआ था कि उसने उपनिषदों का अनुवाद फारसी भाषा में कराया।

इयं नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली। महात्मा बुद्धः, तीर्थङ्करः पार्श्वनाथः, शङ्कराचार्यः, कबीरः, गोस्वामी तुलसीदासः अन्ये च बहवः महात्मानः अत्रागत्य स्वीयान् विचारान् प्रासारयन्। न केवलं दर्शने, साहित्ये, धर्मे, अपितु कलाक्षेत्रेऽपि इयं नगरी विविधानां कलानां, शिल्पानाञ्च कृते लोके विश्रुता। अत्रत्याः कौशेयशाटिकाः देशे-देशे सर्वत्र स्पृह्यन्ते। अत्रत्याः प्रस्तरमूर्तयः प्रथिताः। इयं निजां प्राचीनपरम्पराम् इदानीमपि परिपालयति।

या इयं नगरी सर्वत्र स्पृहान्ते।

■ प्रसंग-पूर्ववत् ।

(2015, 17, 18, 19, 22) (2023)

- अनुवाद - यह नगरी विविध धर्मों के मिलन का स्थान रही है। महात्मा बुद्ध, तीर्थंकर पार्श्वनाथ, शंकराचार्य, कबीर, गोस्वामी तुलसीदास और दूसरे बहुत-से - महात्माओं ने यहाँ आकर अपने विचारों को फैलाया, अर्थात् अपने विचारों का प्रसार किया। केवल दर्शन, साहित्य और धर्म में ही नहीं, अपितु कला के क्षेत्र में भी यह नगरी विविध कलाओं और शिल्पों के लिए संसार में प्रसिद्ध है। यहाँ की रेशमी साड़ियाँ देश-विदेश में सभी जगह पसन्द की जाती हैं। यहाँ की पत्थर की मूर्तियाँ प्रसिद्ध हैं। यह अपनी प्राचीन परम्परा का इस समय भी पालन कर रही है।

 केन किम बर्धते 

सुवचनेन मैत्री।

शृङ्गारेण रागः।

दानेन कीर्तिः ।

सत्येन धर्मः।

ने सदाचारेण विश्वासः।

के

न्यायेन राज्यम् ।

केन किं वर्धते ?

इन्दुदर्शनेन समुद्रः ।

विनयेन गुणः।

उद्यमेन श्रीः।

पालनेन उद्यानम्।

अभ्यासेन विद्या।

औचित्येन महत्त्वम्।

औदार्येण प्रभुत्वम्।

पूर्ववायुना जलदः।

पुत्रदर्शनेन हर्षः।

क्षमया तपः ।

लाभेन लोभः ।

मित्रदर्शनेन आह्लादः।

दुर्वचनेन कलहः।

तृणैः वैश्वानरः।

नीचसङ्गेन दुश्शीलता।

उपेक्षया रिपुः।

कुटुम्बकलहेन दुःखम्।

अशौचेन दारिद्र्यम्।

दुष्टहृदयेन दुर्गतिः ।

अपथ्येन रोगः।

न्व

असन्तोषेण तृष्णा।

व्यसनेन विषयः।

2

सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी' के 'संस्कृत-खण्ड' के

२)

'केन किं वर्धते' पाठ से उधृत है। प्रसंग - इनमें बताया गया है कि किस वस्तु से व्यक्ति की क्या वस्तु वृद्धि प्राप्त करती है।

-

न अनुवाद - मधुर वचन से मित्रता बढ़ती है। चन्द्रमा के दर्शन से समुद्र बढ़ता है। श्रृंगार से प्रेम बढ़ता है। विनय से गुण बढ़ता है। दान से यश बढ़ता है। परिश्रम से धन-सम्पत्ति बढ़ती है। सत्य से धर्म बढ़ता है। रक्षा (पोषण) करने से उपवन बढ़ता है। सदाचार से विश्वास बढ़ता है। अभ्यास से विद्या बढ़ती है। न्याय से 5 राज्य बढ़ता है। उचित व्यवहार से बड़प्पन बढ़ता है। उदारता से प्रभुता बढ़ती है। कने क्षमा से तप बढ़ता है। पूर्वी वायु (पुरवैया) से बादल बढ़ता है। लाभ से लोभ बढ़ता है। पुत्र के दर्शन से हर्ष बढ़ता है। मित्र के दर्शन से प्रसन्नता बढ़ती है। बुरे वचनों से झगड़ा बढ़ता है। तिनकों से आग बढ़ती है। नीच लोगों की संगति से दुष्टता बढ़ती है। उपेक्षा से शत्रु बढ़ जाते हैं। पारिवारिक झगड़े से दुःख बढ़ता है। दुष्ट हृदय से दुर्दशा की वृद्धि होती है। अपवित्रता से दरिद्रता बढ़ती है। अनुचित भोजन से रोग बढ़ता है। असन्तोष से लालच बढ़ता है। बुरी आदत से वासना बढ़ती है।

निबध

 स्वदेश प्रेम

नारी शिक्षा

प्रदूषण

जनसंख्या वृद्धि

आतंकवाद

विज्ञान
                        श्लोक

अपनी पाठ्यपुस्तक के संस्कृतखण्ड • कण्डस्य किया हुआ एक श्लोकः जो प्रश्नपत्र में न आया हो)


                 संस्कृत प्रश्न



          किन्हीं दो संस्कृत प्रश्नी के उत्तर
.० ज्ञान कुत सम्भवति २

• कुत मरणं मङ्गले भवति ?

③ पुरुराजः केन सः युध्दम अकरोत

④ अस्माकं संस्कृतेः कः नियमः




                   हिन्दी व्याकरण

रस (हास्य एवं करुण)


परिभाषा-हास्य रस का स्थायी भाव हास है। किसी व्यक्ति के विकृत रूप,

आकार, वेशभूषा आदि को देखकर हृदय में जो विनोद का भाव उत्पन्न होता है, वही 'हास' कहलाता है। यही 'हास' नामक स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से पुष्ट होता है, तब हास्य रस की निष्पत्ति होती है। उदाहरण - विन्ध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे । गौतम तीय तरी तुलसी सो कथा सुत्रि भै मुनिवृन्द सुखारे ।।

द्वैहैं सिला सब चन्द्रमुखी, परसे पद-मंजुल कंज तिहारे । कीन्हीं भली रघुनायकजू करुना करि कानन को पगु धारे ॥ विन्ध्याचल पर्वत पर रहने वाले तपस्वी-मुनियों की इस सोच पर हँसी आती है कि श्रीराम के चरण-स्पर्श से यहाँ की सभी शिलाएँ अब चन्द्रमुखी नारियाँ बन जाएँगी।

- 1. स्थायी भाव- हास (हँसी)।

स्पष्टीकरण 2.

विभाव (क) आलम्बन - विन्ध्य के वासी तपस्वी।

आश्रय-पाठक।

(ख) उद्दीपन - अहिल्या की कथा सुनना, राम के आगमन पर प्रसन्न होना, स्तुति करना।

3. अनुभाव-हँसना ।

4. संचारी भाव- स्मृति, चपलता, उत्सुकता आदि।

करुण रस

2014, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 23) (

परिभाषा-करुण रस का स्थायी भाव शोक है। शोक नामक स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से संयोग करता है, तब 'करुण रस' की निष्पत्ति होती है। उदाहरण-

मणि खोये भुजंग-सी जननी, फन सा पटक रही थी शीश । अन्धी आज बनाकर मुझको, किया न्याय तुमने जगदीश ॥

श्रवण कुमार की मृत्यु पर उनकी माता के विलाप का यह उदाहरण करुण रस का उत्कृष्ट उदाहरण है।

स्पष्टीकरण- 1. स्थायी भाव- शोक।

2. विभाव (क) आलम्बन- श्रवण । आश्रय- पाठक।

(ख) उद्दीपन - दशरथ की उपस्थिति।

3. अनुभाव-सिर पटकना, प्रलाप करना आदि।

4. संचारी भाव-स्मृति, विषाद आदि।




छंद (रौला एवं सोरठा)


अलंकार (उपमा उत्पेक्षा. रुपक) 

समास (द्वंद्व, द्विगु, कर्मधारप, बहुबीहि)

तद्‌भव / तत्सम / 

पर्यायवाची

उपसर्ग / प्रत्यय

                सस्कृत व्याकरण

    → संधि विच्छेद

  शब्द रूप (फल, मतिः मधु, नदी)

धातु रूप 

                    पत्र लेखन


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